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महाशय धर्मपाल गुलाटी (एम. डी. एच) जीवन परिचय | Mahashay Dharampal Gulati (MDH) Biography

दोस्तो बीते साल 2020 ने हमसे बहुत सारे ऐसे लोगों को छीन लिया जिन्होनें पूरे भारत में ही नही बल्कि पूरी दुनिया में अपना नाम कमाया और अब इस सूची में एक नाम और जुङ गया जिनका नाम था पद्मभूषण महाशय धर्मपाल जी गुलाटी । बहूत से लोग इस नाम से वाकिफ नही होंगे पर अगर मैं कहूं कि वह मशहूर मसालों के ब्रांड MDHके मालिक थे तो सभी को बस एक ही चेहरा याद आएगा पद्मभूषण महाशय धर्मपाल जी गुलाटी

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 दोस्तों नमस्कार मेरा नाम है अमर और आप लोगों का बहुत-बहुत स्वागत है मेरे ब्लॉग Amar Tech News पर । उम्मीद करता हूं कि आप लोग बहुत अच्छे होंगे । आज की कहानी हर उस इंसान को सुननी चाहिए जो अपनी जिंदगी में कामयाब होना चाहता है , क्योंकि यह कहानी बहुत प्रेरणादायक है एक तांगे वाले से कैसे एक आदमी अरबपति बना यह उसकी कहानी है । दो-दो पैसे में मेहंदी बेचने वाला इंसान कैसे करोड़ की गाड़ियों में घूमने लगा उसकी कहानी है ।



दोस्तों यही वह शख्सियत थी जिसने एम डी एच जैसी एक बड़ी कंपनी खड़ी कर दी मगर अफसोस कि अब वह हमारे बीच नहीं रहे 3 दिसंबर 2020 की सुबह कार्डियक अटैक की वजह से उनकी मौत हो गई । पद्मभूषण महाशय धर्मपाल जी गुलाटी को और भी बहुत से नामों से जाना जाता था और जाना जाता रहेगा जैसे कि मसाला किंग और मसाले वाले दादू ।

 


 

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे में जिसने अपना सब कुछ खो दिया और फिर कैसे सिर्फ 15 सो रुपए से उसने इतना बड़ा अंपायर खड़ा कर दिया । यह उसकी कहानी है महाशय धर्मपाल गुलाटी की जो एक मिसाल है कि कैसे एक इंसान अपनी मेहनत और ईमानदारी के दम पर एक कामयाब इंसान बन सकता है ।

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    महाशय धर्मपाल गुलाटी का जन्म -

    यह बात आज से करीब 97 साल पहले की है , उस वक्त हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था और उस वक्त आज का जो पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा हुआ करता था 27 मार्च 1923 को आज के पाकिस्तान के शहर सियालकोट के मोहल्ला मानपुरा में महाशय चुन्नी लाल के घर एक लड़के का जन्म होता है नाम रखा जाता है महाशय धर्मपाल गुलाटी । उनके पिता महाशय चुन्नी लाल गुलाटीअपनी पत्नी और तीन बेटे और पांच बेटियों के साथ सियालकोट के खानदानी घर में रहा करते थे । उनका एक भरा पूरा परिवार था और घर के गुजारे के लिए वह सियालकोट के बाजार पंचारिया में एक मसालों की दुकान चलाया करते थे दुकान का नाम था महाशियां दी हट्टी

     

    पढाई- लिखाई में बिल्कुल नही लगता था मन -

    महाशय चुन्नी लाल गुलाटी का मसालों का काम उनका खानदानी पेशा था । बीतते वक्त के साथ धीरे-धीरे जब धर्मपाल गुलाटी बड़े हुए तो उनके पिता चुन्नी लाल गुलाटी ने उनका दखिला एक प्राथमिक पाठशाला में करवा दिया और वह चाहते थे कि उनके बच्चे खूब पढ़े और बड़े होकर एक अच्छे और अमीर आदमी बने मगर महाशय धर्मपाल गुलाटी का मन पढ़ाई लिखाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था बल्कि उनका मन पतंगबाजी और कबूतर बाजी में ज्यादा लगता था । जब भी स्कूल महाशय धर्मपाल गुलाटीको स्कूल भेजा जाता तो रोने लगते कि नहीं जाना नहीं जाना मगर फिर उनके पिता अपने बच्चे धर्मपाल को चीनी के बताशे देते और तब स्कूल जाते पर उनका मन हमेशा बाहर की चीजों और मौज मस्ती में लगा रहता था । पढ़ाई का नाम सुनते ही वह भागते थे तो जैसे-तैसे करके उन्होंने चौथी कक्षा पास की और पांचवी में पहुंच गए ।

     

    पांचवी कक्षा में ही स्कूल को कह दिया अलविदा-

    जब वह चौथी कक्षा से पांचवी कक्षा में पहुंचे तो सवाल-जवाब भी होने लगे पांचवी कक्षा में महाशय धर्मपाल गुलाटी के एक मास्टर थे जिनका नाम था किशोरीलाल । उन्होंने एक बार महाशय धर्मपाल से इंग्लिश का एक शब्द बोला और फिर उसे दोहराने को कहा मगर महाशय धर्मपाल उसे दोहरा नहीं पाए तो मास्टर किशोरीलाल उनके पास आए और उनकी बांह पर उंगली से चुटकी भरी और जोर से दबाया महाशय धर्मपाल गुलाटी की चीख निकल गई बस तब से उन्होंने स्कूल जाना ही बंद कर दिया और पांचवी के इम्तिहान दिए बिना ही स्कूल छोड़ दिया । अब उन्हें पूरी आजादी मिल गई और पूरे दिन मौज मस्ती करते हैं और बड़े हुए तो उनके पिता ने सोचा कि अगर उनका बेटा धर्मपाल ऐसे ही मौज मस्ती करता रहा तो जिंदगी में कुछ नहीं कर पाएगा ।

     

    कार्यक्षैत्र में बार-बार असफल होना -

    महाशय धर्मपालका मन पढ़ाई लिखाई में तो था नहीं इसलिए महाशय चुन्नी लाल गुलाटी नेमहाशय धर्मपाल को बढई का काम सीखने के लिए भेज दिया और सोचा कि अगर कोई काम सीख जाएगा तो भविष्य में अपना गुजारा कर सकेगा उनके पिता महाशय चुन्नी लाल उन्हें हमेशा बड़े और कामयाब लोगों की कहानी सुनाते जिसे सुनकर महाशय धर्मपाल का मन भी बड़ा आदमी बनने को करता । उसके बाद महाशय धर्मपाल कई महीनों तक लकड़ियों की ठोका-पिटी करते रहे लेकिन उन्हें वह काम भी रास नहीं आया और उन्होंने 8 महीने बाद बढई का काम भी छोड़ दिया । अब उनके पिता ने महाशय धर्मपाल को साबुन की फैक्ट्री , चावल की फैक्ट्री और फिर कढ़ाई-बुनाई में लगाया लेकिन महाशय धर्मपाल एक-एक करके सभी कामों को थोड़े-थोड़े दिनों में छोड़ते गये । उसके बाद जब महाशय धर्मपाल को हार्डवेयर के काम में लगाया गया तो महाशय धर्मपालवहां टिकने लगे मगर एक दिन काम करते-करते उनके सिर में चोट लग गई और महाशय धर्मपाल ने इस काम को भी छोड़ दिया ।

     

    मसालों के कारोबार में रुचि-

    अब थक हार के उनके पिता ने महाशय धर्मपाल को अपने पुश्तैनी मसालों के कारोबार में ही लगा दिया और वह भी अपने पिता के साथ सियालकोट के पंसारी मार्केट की दुकान महाशियन दी हट्टी पर बैठने लगे क्योंकि उनका दिमाग शुरू से ही व्यापार में था तो उन्होंने दिमाग लगाया ।

     

    2-2 पैसे में बैचनी पङी मैहंदी की पुङिया-

    महाशय धर्मपाल मेहंदी की छोटी-छोटी पुङिया बनाएं और उसे रेहडी पर कर दो-दो पैसे में बेचने लगे । 1 रुपये में 100 पैसे होते हैं तो महाशय धर्मपाल सिर्फ 50 पैसे यानी 1 रुपये के 50वें हिस्से में एक पुङिया बेचा करते थे । सियालकोट में वह जहां महाशय चुन्नीलाल रहा करते थे उनके एक तरफ हिंदुओं का इलाका था और दूसरी तरफ मुसलमानों की बस्ती और मुस्लिम लोग बहुत मेहंदी लगाया करते थे तो उनकी खूब बिक्री होती और पूरे दिन में महाशय धर्मपाल 15 से 20 रुपये कमा लिया करते थे  । अब धीरे-धीरे महाशय चुन्नीलाल ने अपने मसालों का कारोबार भी बढ़ाना शुरू कर दिया ।

     

    कारोबार के प्रति श्रद्धा और ईमानदारी-

    अबमहाशय धर्मपाल की उम्र 18 साल हो गई थी और साल 1941 में उनकी शादी लीलावती से करवा दी गई । शादी के बाद जब जिम्मेदारियां बढी तो महाशय धर्मपाल अपना काम और मेहनत से करने लगे  । अब वह पेशावर से मिर्च और हल्दी लाने लगे मिर्च को खुद ही अपने घर में कुटते और हल्दी को अपनी दुकान के नीचे लगी चक्की में पीसते । हल्दी की भी 1 आने और 2 आने की पुड़िया बना कर बेचते । शुरू से ही महाशय धर्मपाल का यह मानना था कि मुनाफा चाहे कम हो मसाला अच्छा और एकदम से असली होना चाहिए । धीरे-धीरे उनके शुद्ध मसालों की वजह से ग्राहक जुड़ते गए तो धीरे-धीरे महाशय धर्मपाल अमृतसर की मण्डी से किरयाने का सामान भी लाकर बाजार में बेचने लगे । अब सियालकोट के पंसारिया बाजार मे उनकी दुकान अच्छी भली जम चुकी थी  । पूरे सियालकोट में मसालों की धूम मची थी खास करके महाशय धर्मपाल की देगी मिर्च का नाम मशहूर हो गया ।

     

    सियाशती बंटवारे के चलते हुए बैघर -

    धीरे-धीरे वक्त बीता और 1947 का वह साल आ गया जिसने हमें अंग्रेजों से आजादी तो दिलाई मगर बंटवारे का दर्द भी दिया और आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनसे बंटवारे ने अपना गांव अपना मोहल्ला अपना कारोबार और अपने बहुत से करीबियों को छीन लिया और महाशय चुन्नी लाल का परिवार भी उन्हीं में से एक था ।

    जब यह खबर आई कि सियालकोट पाकिस्तान में ही रहेगा तो वहां के हिंदुओं में खलबली मच गई और उसके बाद जो कत्लेआम मचा महाशय धर्मपाल गुलाटी और उनका परिवार भी इसके के गवाह थे । जब उन्होंने यह सब देखा तो महाशय चुन्नी लाल और उनका परिवार भी सियालकोट छोड़ने पर मजबूर हो गए तो आजादी के सिर्फ 5 दिन बाद ही 20 अगस्त 1947 को अपना सब कुछ छोड़ कर शर्णार्थी बन गये और एक रिफ्युजी कैम्प में आ गये ।

     

    रिफ्युजी कैम्प में गुजारने पङे दिन-

    कुछ दिन रिफ्युजी कैम्प में गुजारने के बाद 7 सितंबर 1947 को महाशय धर्मपाल गुलाटी व उनका पूरा परिवार ट्रेन में बैठकर डेरा बाबा नानक बॉर्डर पर पहँच गए । उनकी किस्मत अच्छी थी कि वह सही सलामत वहां तक पहुंच कर क्योंकि जिस दिन से वह और उनका परिवार वहां पहुंचे उसकी अगली ही ट्रेन में सिर्फ लाशें ही लाशें आई थी । अब जहां महाशय धर्मपाल गुलाटीखड़े थे उनके एक तरफ पाकिस्तान बीच में रावी नदी और दूसरी तरफ हिंदुस्तान था , उसके बाद उनके पूरे परिवार ने उसी रात रावी नदी को पार किया और धीरे-धीरे करके भारत की तरफ बढ़ने लगे । यह रात उनकी जिंदगी की सबसे काली रात थी क्योंकि पूरी रात बारिश होती रही और उसी बारिश में गिरते पड़ते वह लोग बड़ी मुश्किल से पाकिस्तान का बॉर्डर पार करके हिंदुस्तान के डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे पहुंचे , यहां पहुंच कर उन्होंने चैन की सांस ली । पूरी रात वहां बिताने के बाद अगले दिन अमृतसर के रिफ्यूजी कैंप में पहुंचकर अपने दिन अमृतसर के रिफ्यूजी कैंप में बिताने लगे ।

     

    कारोबार की तलाश में पैदल जाना पङा लुधियाना-

    अमृतसर के रिफ्यूजी कैंप में उन्हें रोङ पर ही सोना होता था , एक रात जब उनका परिवार सो रहा था तो एक ट्रक उनके चाचा का पैर कुचलता हुआ निकल गया , उसके बाद उन्हें उसी कैम्प के हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया , उस पूरी रात में महाशय धर्मपाल गुलाटी सोचते रहे कि और कब तक इस कैंप में अपना वक्त बिताएंगे । बहुत सोचने के बाद उन्होंने यह फैसला किया कि वह वहां से निकलकर कुछ रोजगार का साधन ढूंढ लेंगे और अगले ही दिन महाशय धर्मपाल गुलाटी अपने बड़े भाई धर्मवीर गुलाटी और अपनी बहनों के साथ वहां से निकल गए ।

     

    1500 रुपये में शुरु किया तांगा चलाने का काम -

    जब महाशय धर्मपाल गुलाटी वहां से चलने लगे तो उनके पिता चुन्नी लाल गुलाटी ने धर्मपाल गुलाटी के हाथ में 1500 रुपये दिये और यही 1500 रुपये लेकर महाशय धर्मपाल गुलाटी अपने बहन-भाइयों के साथ रोजगार की तलाश में पैदल ही लुधियाना पहुँच गए । जब महाशय धर्मपाल गुलाटी  लुधियाना पहुंचे तो देखा कि पूरा लुधियाना सुनसान पङा है । अब महाशय धर्मपाल गुलाटी लुधियाना एक रात छहरे और अगली सुबह ही रेलगाङी पकड़कर दिल्ली पहुंच गए । दिल्ली आने के बाद महाशय धर्मपाल गुलाटी करोल बाग में अपनी बहन के घर ठहरे और कुछ दिन बाद वहीं पर एक खाली जगह में अपने रहने का ठिकाना बना लिया । अब रोजगार का जरिया ढूंढना था और उनके पास सिर्फ 1500 रुपये ही थे तो महाशय धर्मपाल उन्हें पैसों को लेकर चांदनी चौक पहुंच गए और वहां महाशय धर्मपाल गुलाटी ने देखा कि कुछ लोग तांगा बेच रहे हैं । यह सब देखकर महाशय धर्मपाल गुलाटी उनके पास गए और पूछा कि मियां तांगा कितने का दिया था तो वह बोला 800 रुपये का  । उन्होंने तांगा के मालिक से मोलभाव किया और 650 रुपये में उन्होंने तांगा खरीद लिया । तांगा चलाने की शुरुआत में महाशय धर्मपाल गुलाटी  को काफी मुश्किलों का सामना करना पङां क्योंकि तांगा चलाने का काम उनके लिए बिल्कुल नया था और उन्हे इस काम की बिल्कुल भी जानकारी नही थी । धीरे – धीरे उन्हे पता चला कि सफर से थकने जाने के कारण घोङे की मालिश करनी पड़ती है और टांग की मालिश भी करनी पङती है  । अब महाशय धर्मपाल गुलाटी एक तांगेवाला बन चुके थे और अब दो आने सवारी लेकर वह अपना तांगा दिल्ली रेलवे स्टेशन से करोल बाग और वहां से कनॉट प्लेस तक दौड़ाने लगे लेकिन वह एक व्यापारी थे इसलिए उन्हें तांगा चलाना रास नहीं आया और सिर्फ 2 महीने बाद ही उन्होंने अपना तांगा बेच दिया । अब वह सोचने लगे कि क्या काम करें और उन्हें और कुछ काम तो आता नहीं था तो उन्होंने अपने पुश्तैनी काम मसाले बेचने का ही फैसला किया ।

     

    तांगा बैचकर किया वापिस मसालों का कारोबार शुरु-

    तांगा बेचकर मिले पैसों से महाशय धर्मपाल गुलाटी ने कुछ लकड़ियां खरीदी  और साल 1948 के शुरुआत में करोल बाग अजमल खान रोड पर 19 बाई 14 फुट का खोखा बनवा लिया खोखा मतलब एक लकड़ी की दुकान  । अब इस दुकान में मसाले बेचने शुरू कर दिए और अपने पिता की दुकान का नाम बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी दुकान का नाम भी महाश्यां दीहट्टी सियालकोट वाले रख लिया । अब महाशय धर्मपाल गुलाटी खुद ही मिर्च कुटते , हल्दी पीसते और मसाला तैयार करके अपनी दुकान में बैचते । यहां भी उन्होंने अपनी मसालों की शुद्धता का पुरा ख्याल रखा और उन्होंने अखबार में अपनी दुकान का विज्ञापन दिया ।

     

    चांदनी चौक दिल्ली से की कारोबार की शुरुआत-

    जब लोगों को अखबार के जरिए पता चला कि सियालकोट के देगी मिर्च दिल्ली में है और ग्राहक जुड़ते गए और महाशय धर्मपाल गुलाटी का कारोबार तेजी से फैलने लगा उसके बाद 1953 में महाशय धर्मपाल गुलाटी ने एक और दुकान चांदनी चौक में ली और इस दुकान में भी खूब बिक्री होने लगी । दशक आते-आते महाश्यां दी हट्टी सियालकोट वाले करोल बाग और चांदनी चौक में मसालों की एक बहुत बड़ी दुकान बन चुकी थी । धीरे-धीरे जब काम में बरकत मिली तो उन्होंने दिल्ली में और भी दुकानें खरीदनी शुरू कर दी और अब क्योंकि मसाले ज्यादा बिकने लगे तो सिर्फ घर की पिटाई से काम नहीं चल रहा था इसलिए अब वह अपने मसाले पहाड़गंज की मसाला चक्की से तैयार करवाने लगे ।

     

    मसालों की शुद्धता पर रखी पैनी नजर-

    एक दिन महाशय धर्मपाल गुलाटी अपने मसालों की जांच करने पहाड़गंज मसाला चक्की पहुंच गए जहाँ उनका मसाला चक्की पिसता था । उस चक्की के मालिक का नाम था बाबूलाल । बाबूलाल महाशय धर्मपाल गुलाटी की ही हल्दी की पिसाई रहा था ,जब महाशय धर्मपाल गुलाटी ने उस पिसी हुई हल्दी की जांच की तो उन्पे कुछ गड़बड़ लगी और उन्होंने कहा कि यह क्या हो रहा है बाबूलाल हल्दी में कुछ मिलावट लग रही है तो बाबूलाल बोला क्यों इल्जाम लगाते हो लाला जी यह बिल्कुल शुद्ध माल है और हमारे यहां कोई मिलावट नहीं होती मगर महाशय धर्मपाल गुलाटी मसालों के पुराने खिलाड़ी थे । उन्होंने हल्दी देखते हैं तुरंत पहचान लिया कि इस में चने की दाल मिली हुई है दरअसल बाबूलाल उस हल्दी में चने की दाल मिला देता और जो हल्दी चने की दाल मिलाने से बच जाती उसी को फिर बाजार में बैच देता था उसके बाद महाशय धर्मपाल गुलाटी और बाबूलाल में इस बात को लेकर काफी बहस हुई तो बाबूलाल बोला कि अगर आपको हम पर विश्वास नहीं है तो अपना माल कहीं और पिसवा लीजिए ।

    अब महाशय धर्मपाल गुलाटी को बहुत गुस्सा आया क्योंकि मसालों की शुद्धता ही उनका पहला लक्ष्य था इसलिए वह बाबूलाल के यहां से अपना सारा माल उठा कर लिया है और सोचा कि अगर इस माल को कहीं और पिसवाया जाए तो क्या गारंटी है कि इसमें कोई मिलावट नहीं करेगा इसी उधेड़बुन में उन्होंने एक फैसला लिया और उसी फैसले ने आगे चलकर महाशियां दी हट्टी नाम का ब्राण्ड बना दिया ।

     

    1959 में लगाया मसाले पीसने का कारखाना -

    1959 में महाशय धर्मपाल गुलाटी ने कीर्ति नगर में अपनें  मसालों को पीसने के लिए पहला कारखाना लगाया और फैसला किया कि अब वह सारा मसाला खुद ही पीसेंगे । यहां से महाशय धर्मपाल गुलाटीवापिस पीछे मुड़कर नहीं देखा और देखते ही देखते कामयाबी के शिखर तक पहुंच गए आज उसी महाशिया दी हट्टी को हम MDH के नाम से जानते हैं । बहुत से लोग यह नहीं जानते होंगे कि एमडीएच का क्या मतलब है तो एमडीएच का ही पूरा नाम महाशियां दी हट्टी है । वही नाम जो सियालकोट के बाजार में उनके पिता महाशय चुन्नीलाल गुलाटी की दुकान का नाम था  

     

    1992 में लगा पत्नी और पुत्र की मौत का सदमा-

    उसके बाद उन्होंने एक और कारखाना राजस्थान में खोल डाला फिर दुबई में,  लंदन में और फिर अमेरिका में इसी बीच महाशय धर्मपाल गुलाटी को एक और झटका लगा 1992 में उनकी पत्नी लीलावती का देहांत हो गया और 2 महीने बाद ही उनके छोटे बेटे संजीव गुलाटी की भी मौत हो गई । पहले पत्नी और फिर बेटे की मौत ने मां से महाशय धर्मपाल गुलाटी को बहुत बड़ा झटका दिया , लेकिन यह दौहरा सदमा भी उन्हें हिला नहीं पाया और उनका हौंसला उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा ।

     

    खुद ही बने अपने ब्राण्ड चैहरा-

    आज एमडीएच सालाना करोड़ों का कारोबार करती है और उसके साथ के 100 से भी ज्यादा प्रोडक्ट पूरी दुनिया के सौ से भी ज्यादा देशों में भेजे जाते हैं । आज एमडीएच पूरी दुनिया में मसालों का एक बड़ा ब्रांड बन चुका है और महाशय धर्मपाल गुलाटी इस ब्रांड का चेहरा । उन्होंने कभी एमडीएच की एडवर्टाइजमेंट के लिए किसी बड़े अभिनेता या अभिनेत्री का सहारा नहीं लिया बल्कि खुद उसका चेहरा बने क्योकि वह खुद ही एक चलता-फिरता ब्राण्ड थे ।

     

    लोगों के इलाज के लिए धर्माथ चिकित्सालय का निर्माण-

    राजस्थानी पगड़ी गले में मोतियों की माला और ताव दी हुई मूंछे उनकी पहचान थी उन्हें देखकर हर कोई पहचान लेता था कि यह तो एमडीएच वाले हैं । उसके बाद उन्होंने काफी समाज सेवा का काम भी किया उन्होंने अपने पिता के नाम से महाशय चुन्नी लाल चैरिटेबल ट्रस्ट खोला और उसी ट्रस्ट के द्वारा अपनी मां माता चानन देवी अस्पतालखुलवाया जिसमें लोगों को काफी रियायत भी दी जाती है । धीरे-धीरे करके उन्होंने 20 स्कूल भी बनवाए ।

     

    राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित-

    महाशय धर्मपाल गुलाटी के इसी काम को देखते हुए साल 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म भूषण से उन्हें नवाजा गया मगर उम्र के इस पड़ाव में शरीर उनका साथ छोड़ने लगा था और नवंबर 2020 के आखिर में अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई फिर उन्हें उन्हीं के हॉस्पिटल माता चानन देवी में भर्ती कराया गया परन्तु उनकी हालत धीरे-धीरे और खराब होती गई और खराब हालत के चलते 3 दिसंबर 2020 की सुबह उन्हें अचानक कार्डियक अटैक आया और 97 साल के महाशय धर्मपाल गुलाटी की सांसे टूट गई । पूरे विधि-विधान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया ।

     

    लोगों के लिए बने प्रैरणा का स्त्रोत-

    महाशय धर्मपाल गुलाटी की यह कहानी ,उनकी कामयाब जिंदगी ,उनकी ईमानदारी मेहनत और अनुशासन ,आज के लोगों के लिए एक मिसाल है । तांगा चला कर दो आने कमाने वाला एक शख्स कैसे मेहनत करके करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर सकता है महाशय धर्मपाल गुलाटी उसका एक बहुत बड़ा उदाहरण थे । यह थी एमडीएच मसाला किंग महाशय धर्मपाल गुलाटी की कहानी मुझे उम्मीद है कि आपको यह कहानी पसंद आई होगी ।

     

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    महाशय धर्मपाल गुलाटी (एम. डी. एच) जीवन परिचय | Mahashay Dharampal Gulati (MDH) Biography Reviewed by Amar Tech News on सितंबर 17, 2022 Rating: 5

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    Dear friend thanks for visit my blog
    Good Luck.

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